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माँ : एक ईश्वरीय भेंट



      माँ : एक ईश्वरीय भेंट
 // दिनेश एल० "जैहिंद"

हरेक बेटों की तरह मैं भी खुद को अपनी माँ के बहुत करीब पाया। यद्यपि हर बेटों के साथ कुछ ऐसा ही होता है, परन्तु दुनिया में कमोवेश कुछ अपवाद हो तो मैं नहीं कह सकता।
माँ, मैं के बहुत करीब का शब्द लगता है मुझे।
मैं समझता हूँ कि मैं ही माँ है या माँ ही मैं अर्थात् सब है। कृष्ण का ये कहना कि मैं ही सब हूँ या सब कुछ ही मैं ही हूँ, प्रमाणित करता है कि ईश्वर ही माँ है और माँ रूप में सारा जग को पोषित कर रहा है। या इसे यूँ कहूँ तो गलत नहीं होगा कि ईश्वर स्वयम् को सृष्टि हेतु माँ रूप में विभाजित कर रखा है।

अब इस नश्वर रूपी संसार में जहाँ मानव ईश्वर को सिर्फ और सिर्फ सोच सकता है, वहाँ ईश्वर तो नहीं, पर माँ के रूप में उसे एक ईश्वरीय भेंट मिली है।

....... और जैसे हरेक को यह उपहार मिला हुआ है वैसे ही मुझे भी यह उपहार मिला है।

माँ... ! माँ की गोद में खेलते-खेलते कब मैं बाल्यावस्था से किशोरा- वस्था में प्रवेश कर गया, मुझे पता ही नहीं चला। जैसे शैशव अवस्था में बच्चा माँ के लिए रोता है, बाल्यावस्था में वही बच्चा माँ-माँ चिल्लाता फिरता है, किशोरावस्था में वही माँ को ढूढ़ता है। परंतु वही बच्चा जैसे ही युवावस्था में पहुँचता है तो कुछ और ढूँढने लगता है। लेकिन मेरे साथ कदापि ऐसा नहीं हुआ है। मैं कल भी अपनी माँ से प्रेम करता था और आज भी इस प्रौढ़ावस्था में  अपनी माँ से प्रेम करता हूँ और उतना ही करता हूँ जितना कल करता था।

किस बच्चे को माँ की छवि निराली नहीं लगती है, मुझे भी लगती है और बहुत अधिक निराली लगती है।

मझौली काठी, रंग गेहुँअन, अंडाकार सिर, सिर पर घने लम्बे केश, आँखें छोटी मगर गोल, नाक छोटी मगर आकर्षक, होंठ छोटे कसे हुए, दाँत छोटे मगर गसे हुए।

कुल मिलाकर एक चित्ताकर्षक चेहरा। ऐसे जैसे पहली ही नजर में हर किसी को अपनी ओर देखने पर विवश कर दे। ममता, दया, स्नेह, अपनापन जैसे स्त्रियोचित विशेषताएँ तो उनमें कूट-कूट कर भरी गई हों। दयावान दया की  मूर्ति ! झूठ से बहुत दूर, ईमानदारी के बहुत करीब। जैसे साक्षात् ईश्वर !

मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं हैं। और सात-आठ दशक पहले लोग इतने कहाँ पढ़े-लिखे होते थे ? स्त्रियाँ तो और भी नहीं ! पर इस पढ़ाई का आज क्या फायदा जो मानव-मन की प्रेम-सरिता को सोखकर सूखा-पाषाण-हृदय बना दे ! कम से कम मेरी माँ तो इससे कोसों दूर है।
मुझे खुशी है कि ऐसी माँ का ज्येष्ठ पुत्र होने का मुझे गौरव प्राप्त है।

मेरी माँ की कुल मिलाकर चार संतानें हैं। एक मैं, दूसरा छोटा भाई और दो बहनें हैं। कनिष्क भाई दिल्ली में सपरिवार रहते हैं और वहीं प्राइवेट जॉब पर हैं, शेष दोनों बहनें अपनी-अपनी ससुराल घर-परिवार में व्यस्त हैं। माँ की सभी संतानें उनसे बेहद स्नेह रखती हैं और बहुत मान-तान करती हैं। माँ भी अपना दुलार अपनी सभी संतानों पर लुटाने में कोई कोताही नहीं बरतती है। एक बात मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि अपनी संतानों को स्नेह व दुलार देने में माँ कभी पीछे नहीं हटती हैं, पर भाइयों के अपेक्षा बहनें इसमें अधिक भाग्यशालिनी होती हैं।




माँ...... मेरी माँ धार्मिक विचार-धारा से अधिक प्रभावित महिला हैं | ईश्वर को मानना, उसमें विश्वास रखना, प्रतिदिन स्नान करना और ईश्वर का ध्यान करना, पूजा-पाठ करना, भजन करना इत्यादि उनकी दिनचर्या में शामिल हैं | कितनी भी वो व्यस्त रहें, पर सुबह-सुबह इन सबों के लिए हर हाल में  समय निकाल ही लेती हैं | ऐसे में कोई उन्हें कुछ नहीं बोलता | बोलता भी कैसे ? भला ईश्वर में आस्था रखने व पूजा-पाठ करने पर कोई कुछ बोलता है ! ये तो अपने-अपने विचार है, उनका निजी मामला है |
परन्तु मैं कभी-कभी एक काम के लिए बोलता हूँ और पाप का भागी बन जाता हूँ | कहीं आसपास राम कथा हो रही हो, राम लीला चल रही हो, कृष्ण लीला चल रही हो, भजन- कीर्तन चल रही हो, नाटक हो रहा हो, कोई भारी धार्मिक जलसा हो रहा हो | माँ तैयार होकर पहुँच जाती हैं, बच्चों को भी साथ ले लेती हैं | और देखने सुनने में इतनी मग्न कि समय की ओर कभी ध्यान ही नहीं जाता | घर लौटने की कोई जबाबदारी ही नहीं होती |
यहाँ तक तो ये सब ठीक है | मैं भी सोचता हूँ कि इस वृद्धावस्था में भला राम को न भजकर कोई वृद्ध भजे तो किसे भजे ? सो चुप्पी साधे रहता हूँ, पर जब आस-पास या टोले-मुहल्ले में कोई वैवाहिक कार्यक्रम-उत्सव होता है तो वहाँ भी पहुँच जाती हैं या जाने के लिए उद्यत रहती हैं |
लोग खोजते भी हैं | तब मेरा मन उद्विग्न हो जाता है | पर क्या करूँ ? माँ हैं न ! और तब हालत ये कि -
एक बोलता हूँ, तो दस सुना देती हैं | दस बोलता हूँ तो सौ सुना देती हैं | और मैं...... मैं तो सौ सुनकर भी चुप | माँ के आगे कोई वश नहीं चलता | है न !
कभी-कभी तो आलस्य भगाने के नाम पर खेत-खलिहानों या जंगल-मैदानों में निकल जाती हैं और घंटों बाद लौटती हैं | और फिर भी ...... मैं चुप !
माँ अकेली हैं ! अकेली कहने से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि मेरी माँ का कोई नहीं है | माँ का तो पूरा हरा-भरा संसार है | मेरा मतलब यह है कि विगत पाँच साल हुए, मेरे बाबूजी हम सबों को छोड़कर स्वर्गवासी हो गए | तब से माँ मेरे और अपने पोतों-पोतियों के साथ अपने जीवन के शेष भाग प्रसन्नता व संतोष के साथ  जिए जा रही हैं | मैं जहाँ तक हो सके कोशिश करता हूँ कि माँ सदा अपनी मर्जी से जिए और
खुशहाली के साथ जिए | किसी भी प्रकार की मन में ग्लानि न रखें और सदा प्रसन्न रहें |
अंतत: मैं भगवान से नित यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरी माँ
अति दीर्घायु हों और हम सबों के बीच हमेशा-हमेशा के लिए बनी रहें |

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दिनेश एल० "जैहिंद"
25. 01. 2019

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