सृष्टि व जीवन
// दिनेश एल० "जैहिंद"
एक अनाड़ी या अज्ञानी भी समझ सकता है कि ऋतुएं आती है जाती है। जीवन आता है जाता है। दिन होता है रात होती है। फूल खिलते हैं मर जाते हैं। तारे जन्म लेते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। सृष्टि शून्य से उपजी है और शून्य में विलीन हो जायेगी।
पर ये छोटी-मोटी बात आधुनिक विज्ञान, समस्त मानव, सकल धर्मावलंबियों को क्यों नही समझ आती है कि ब्रह्माण्ड में हर चीज अपनी साइकिंलिंग को पूरी करने में लगी है। वह पूरी करेगी और खत्म होगी, फिर वहीं से शुरू करेगी जहाँ से चली थी।
ये तथ्य आप जानते हैं कि मैं किस संदर्भ में कह रहा हूँ?
मैं यह बताना चाहता हू कि हमारा सनातन व सनातनी ग्रंथों में कही सारी बातों अक्षरश: पूर्ण सत्य है। जिसे सम्पूर्ण विश्व, विज्ञानिक व समस्त मानव जाति को मान लेना चाहिए।
साइंस स्वयम् हर क्रिया-प्रक्रिया की साइकिलिंग को बड़ी-से-बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित करता है। उसे प्रमाणित करता है। यहाँ तक कि उसे मानता भी है। मगर सनातनी वेदों-पुराणों व शास्त्रों के सिद्धान्तों को एकदम सिरे से खारिज कर देता है। हर चीज या बात को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। हमारी मानसिक उच्छृंखलता ही है कि हम हर बात को प्रामाणिकता की कसौटी पर कसना चाहते हैं। हम ये नहीं सोच पाते कि किसी को अपनी कसौटी पर कसने के लिए उसके अनुरूप ही कोई माध्यम की जरूरत होती है। हम अभी भी इतने सक्षम नहीं हुए हैं कि वो माध्यम तलाश सकें। क्या हमारे पास भूतकाल में जाने, सुदूर तक जाने का कोई माध्यम है? क्या हमारे पास भविष्य काल में पहुँचकर भावी घटनाओं को जानने का माध्यम है? क्या हमारे पास मन की इच्छा से हर वस्तु को प्राप्त करने का कोई माध्यम है? क्या हमारे पास स्वयम् को अदृश्य कर लेने का माध्यम है? क्या हमारे पास किसी के मन की बात/दुख जान लेने की शक्ति है? क्या हमारे पास मन/दिमाग की कोई ऐसी शक्ति है जिससे इन सारे माध्यमों को प्राप्त कर सकें?
इसका उत्तर है- "नहीं!"
हम सिर्फ कल्पना लोक में विचरण कर सकते हैं। वैज्ञानिक कल्पनाओं व अनुमानों की बदौलत हम निरंतर दुनिया को थोथा थ्योरी दे सकते हैं। दुनिया को बेहतर, सुखी व समृद्धि बनाने की न सोचकर अपना समय व धन बर्बाद कर रहे है। क्या ही अच्छा होता कि अपना समय व धन दुनिया को सुखी, सम्पन्न व शांतिमय बनाने में खर्चा किया जाता?
सनातनी वेद-पुराण कहते हैं कि कुल युग को चार कालखंडों में बाँटा गया है। ये मात्र चार ही होते हैं -
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलयुग। ये चारों युग प्राकृतिक व खगोलीय नियमों के तहत अपनी साइकिल से बँधे हैं। सृष्टि का आरम्भ काल सतयुग से धरती पर चलता आ रहा है। फिर त्रेता आया, फिर द्वापर आया और अब कलयुग चल रहा है। सृष्टि की कुल अवधि लगभग ४३२०००० वर्षों तक की मानी गई है। इसमें सतयुग को १७२८००० वर्षों का त्रेतायुग को १२९६००० वर्षों का, द्वापर को ८६४००० वर्षों का और शेष ४३२००० वर्षों का कलयुग को माना गया है। गौर करने वाली बात यह है कि यह अंतिम युग है। यह अपना चक्र पूरा करने के बाद पुन: वहीं सतयुग से प्रारम्भ करेगा।
एक बार इस युग का अंत हो गया तो फिर ये कितने लंबे अंतराल के बाद अस्तित्व में आयेगा कोई नहीं जानता। एक बार इस ब्रह्माण्ड का शून्य में विलय हो गया तो फिर ये ब्रह्माण्ड कब अस्तित्व में आएगा, कोई नहीं जानता।
गर आप मानव इतने सक्षम हो तो इन सबका पता करके अपने आपको श्रेष्ठ साबित करो ना। इस समय को बाँध लो ना। अपने बूढ़ापे को रोक लो ना। स्वयम् को अमरत्व दिलाओ ना।
औसतन मानव स्वयम् को बौद्धिक क्षमता से परिपूर्ण समझता है। तभी तो ध्यान, योग, जप, तप आदि जैसे माध्यमों को इन्हीं सभी प्रश्नों का हल ढूढ़ने हेतु शायद इजाद किया गया होगा। और तंत्र, मंत्र, यंत्र जैसे साधनों का सहारा इन्हीं पेचीदा सवालों का जवाब खोजने के लिये किया होगा।
अगर ईश व उसकी सृष्टि को जानना है तो इस वैज्ञानिकता व भौतिकता के सहारे आमरण तारे ही गिनते रह जाओगे, ईश व सृष्टि का रहस्य नहीं जान सकते।
मैं तो कहता हूँ जानने कि जरूरत ही क्या है व क्यों हैं?
क्या अपने बौद्धित्व व महानत्व साबित करने के लिये?
क्या अपने शक्तित्व व श्रेष्ठत्व साबित करने के लिये?
आप एक तो मृत्यु का रहस्य ढंग से उजागर नहीं कर पाये आज तक। पृथ्वी पर अवतरित होने का कोई दूसरा माध्यम इजाद नहीं कर पाये अभी तक।
और मंगल व चाँद पर जाने का क़वायद कर रहे हो सिर्फ।
सुदूर ब्लैकहोल व जीवंत प्लेनेट खोजने की कसरत कर रहे हो सिर्फ।
अन्य ग्रहों पर मानव जीवन की वर्षों से तलाश जारी है। पर कहीं मानव मिला। यहाँ तक कि कोई दूसरा जीव तक नहीं मिला, मानव की बात तो बहुत दूर है। क्यो? यह यक्ष प्रश्न अमेरिका व रूस के सामने आज भी विकराल राक्षस की तरह खड़े हैं। अत: सब किया-कराया निर्थरक व व्यर्थ है।
हम मानव का दुर्भाग्य है कि आप सब ये साबित करने पर लगे हो कि ईश्वर नहीं है। और नास्तिक की एक बड़ी फौज तैयार करने पर तुले हुए हो। फिर इस धरती पर दो फौज तैयार होंगे ही। और "हम नास्तिक, तुम आस्तिक" कहते हुए आपस में लड़ेंगे ही। फिर तो लड़-कट के मर जाएंगे।
"महाभारत" ऐसे ही नहीं हुआ था। ये सत्य व असत्य का ही युद्ध था। धर्म व अधर्म की ही लड़ाई थी। फिर तो शुरू होगी नास्तिकों व आस्तिकों की लड़ाई।
अब से पहले जो लड़े वही क्या कम था। प्रथम विश्वयुद्ध लड़ कर देख लिये, द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ कर देख लिये। अभी शनै: शनै: तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी ही तो चल रही है। करो तैयारी। शांति व सुख से रहने किसी को नहीं आया। "हम बड़ा तो हम बड़ा।"
अपना उल्लू सीधा करने व सर्वत्र वर्चस्व स्थापित करने हेतु सभी देशों के हुक्मरान, राजनैतिक पार्टियाँ व धार्मिक गुरुओं ने समाज में विषमता व वैमनस्यता पैदा करने हेतु स्त्री व पुरुष, अमीर व गरीब, मजदूर व मालिक, ब्राह्मण व शुद्र, सत्य व असत्य, धर्म व अधर्म, नास्तिक व आस्तिक इत्यादियों को आपस में लड़ा रहे हैं। इन्हें अपना ताज प्यारा है, दुनिया जाये भांड़ में।
सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचार पर ही चलकर समस्त विश्व सुखी, समान्य व संपन्न हो सकता है। इसलिए मैं कहूँगा---
"बहुजन हिताय बहुजन सुखाया!"
"वसुधैव कुटुंकम्"
के भाव सभी अपने चित्त में लेकर जीवन यापन करें और सानंद रहें।
जय हिंद..................जय भारत
लेखक: दिनेश एल० "जैहिंद"
मशरक, सारण, बिहार।
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