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लघुकथा -- ((((जोकर))))


लघुकथा
"जोकर"
//दिनेश एल० "जैहिंद"

"सुनते हो जी !"
"हाँ ! सुन रहा हूँ तुम्हें। भला किसकी मौत आई है कि तुम्हारी नहीं सुनेगा !"
"हाँ.... तो ऑफिस से आते हुए एक स्वेटर बढिया वाला ले लेना !"
"किसके लिए.. ?"
मेरे लिए... और किसके लिए... सुने !"
"सुन लिया, ...... और कुछ !!?"
".....और हाँ, एक काश्मीरी  चादर ले लेना। ठंड बढ़ गई है।"
"ठीक है जी।" बाबूलाल तैयार होकर चाय-नाश्ता लेने के लिए कुर्सी पर बैठ गए --"मेरा नाश्ता लगाओ, ऑफिस को देर हो जाएगी !"
"ये रहा आपका नाश्ता !" विमला ने चाय- नाश्ता सामने रखते हुए कहा--" ... और ये रहा आपका लंच-बॉक्स !"
"ठीक है.. रख दो ! ये श्रुति दिखाई नहीं दे रही है, किधर है ?"
"रसोई-घर में है, ..... मुँह फुलाए बैठी है।" विमला ने उसकी हकीकत बतायी-- "जो भी चाहिए मुझसे ही कहेगी आपसे नहीं !"
"ओह्ह ! ये भी न, गजब की मुसीबत है।" बाबूलाल नाश्ता छोड़कर उठ गए और श्रुति बेटी के पास पहुँच गए-- " अल्ला-अल्ला, मेरी प्यारी गुड़िया ! क्यों रुठी हो, लगता है तुम्हें भी कुछ चाहिए। अच्छा, बोलो बेटी, क्या चाहिए तुम्हें ?"
पकड़कर अपने साथ कुर्सी तक ले आए और प्यार-दुलार से उसे पुचकारने लगे।
स्नेह व दुलार पाकर श्रुति कुछ सहज 
हुई--
"पापा, मेरे जूते और जुराब फट गए हैं | आज जरूर लेते आइएगा। ... और हाँ, जुराब गर्म वाले चाहिए, समझे।"
"ठीक है बेटा !" बाबूलाल ने आश्वासन दिया श्रुति को, हाथ-मुँह धोए और बैग उठाकर चल पड़े।
जैसे ही घर के मुख्य दरवाजे से बाहर निकले, उनका छोटा व दुलारा बेटा सुभाष घर की ओर आते हुए दीख गया। उन्होंने उसे टोका तो वह ठिठक गया।
"पापा, ऑफिस जा रहे हो ?"
"हाँ, बेटा !"
"ठीक है पापा, पर आप मेरे लिए मिठाइयाँ लाना नहीं भुलिएगा" सुभाष ने उलाहने भरे स्वर में कहा --"कल आप मेरी संदेश वाली मिठाई नहीं लाए थे, आज जरूर लाइएगा !"
" ठीक है बेटा, जरूर लाऊँगा। आज नहीं
भूलूँगा।" बाबूलाल ने यहाँ भी अपने बेटे को आश्वस्त किया और आगे की ओर बढ़ गए।

सिर नीचे और नजरें पथ पर। एक हाथ बैग पर और दूसरा हाथ पैंट की जेब में। मस्तिष्क कहीं और,--
"मैं दुनिया को भला कैसे खुश रख सकूँगा जबकि मैं मात्र चार-पाँच लोगों को ठीक से खुश नहीं रख पाता हूँ ? मैं रखवाला रूपी "जोकर" भला परिवार में किस-किस को खुश रखूँ ?"

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दिनेश एल० "जैहिंद"
10. 12. 2018


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