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### कुछ मानवीय गुण: मेरी दृष्टि में ###

कुछ मानवीय गुण: 
मेरी दृष्टि में



जैसे हर प्राणी के कुछ-न-कुछ अपने निजी गुण-अवगुण होते हैं, वैसे ही मनुष्य के भी अपने कुछ-न-कुछ निजी गुण-अवगुण होते हैं। मनुष्य के गुण और उसकी अच्छाई जहाँ उसे ऊपर उठाते हैं वहीं उसके अवगुण उसे नीचे की ओर गिराते हैं।

काम क्रोध मद लोभ मनुष्य के ये चार ऐसे अवगुण हैं, जो इन्हें जनम से ही प्राप्त होते हैं।

ये मानवीय विशेषताएं प्राकृतिक प्रदत्त हैं इनसे कोई चाह कर भी नहीं बच सकता हैं। हाँ, ऐसा हो सकता है कि ये अवगुण किसी में कुछ कम हो तो किसी में कुछ ज़्यादा हो। परन्तु रहते अवश्य हैं।

इन चारों अवगुणों में पहला स्थान काम (सेक्स) को प्राप्त हैं, जो प्रधान है और प्रधान ही नहीं बल्कि मानव समाज का ध्रुव है। किन्तु इस समाज का विडम्बना देखिए कि जो मानव समाज, सकल प्राणी और समस्त चराचर जगत के केन्द्र में निहित है, उसी की अनदेखी हम प्रारम्भ से ही किए जा रहे हैं। यह एक विचारणीय प्रश्न है।

दूसरा स्थान क्रोध को प्राप्त है। क्रोध....!
क्रोध भी मनुष्य का एक सामान्य गुण है।जहाँ मन है वहाँ मनोकामना का जगना स्वाभाविक है और मनोकामना का पूरा होना या न पूरा होना मनुष्य के बाह्य या उसके अन्त: परिस्थितियों पर ही आश्रित होता है। उसके पूरा होने की स्थिति में वह जहाँ प्रसन्न होता है वहीं न पूरा होने की स्थिति में वह अप्रसन्न होता है, यहाँ तक कि क्रोध भी करता है।

तीसरा स्थान मद(घमंड) को प्राप्त है। 
यह भी एक मानवीय गुण है। यहाँ मैं यह बता दूँ कि जिन गुणों से हमारा अहित व नुकसान होता है, उन्हें हम अवगुण की श्रेणी में डाल देते हैं। तो मनुष्य का यह भी एक बड़ा अवगुण है। जब मनुष्य अपने कर्म और कर्म से प्राप्त सु परिणामों पर घमंड करने लगता है तो उसका नाश या पतन भी उसका स्वाभाविक दशा बन जाती है। विश्व के पौराणिक व ऐतिहासिक पटल पर अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं।

चौथा स्थान लोभ (लालच) को प्राप्त है। लोभ..
यह भी मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण है।
कहा भी गया है कि लालच बुरी बला है। मनुष्य चाह कर भी इससे स्वयम् को बचा नहीं पाता है।
उत्तम भोज्य पदार्थ, उत्तम वस्त्र, उत्तम आवास,
सुंदर स्त्री/पुरूष, उत्तम सुख-सुविधाएँ इत्यादि।
आदिकाल से ही मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करते आए हैं।

अब हम आते हैं यहाँ कि हम इनसे कैसे बच सकते हैं या इनको कैसे कम कर सकते हैं। तो हम पाते हैं कि इनसे बचने का एक मात्र साधन ज्ञान और संतोष ही हो सकता है। ज्ञान तो सभी के पास हो नहीं सकता है, पर कुछ हद तक हम सत्संगी करके अपनी अज्ञानता को दूर भगा सकते हैं और संतोष (संतुष्टि) तो हो ही सकती है...मन में संतुष्टि जगायी जा सकती है और इन चारों अवगुणों पर कमोवेश विजय पायी जा सकती है।
ग्राहस्थ्य जीवन में रह कर कम से कम देवत्व, संतत्व व साधुता नहीं ला सकते तो कम से कम मनुष्यता व आदमित्व तो ला ही सकते हैं।

और फिर मानव समाज व इस दुनिया को बेहतर तो बना ही सकते हैं।

यहाँ एक दोहा का उल्लेख करूँगा ---

गोधन, गजधन, बाजधन और रतनधन ख़ान।
जब आवत संतोषधन सब धन धूलि समान।।

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दिनेश एल० "जैहिंद"
29. 07. 2016

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