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((((( ईश्वर तो है ही )))))

ईश्वर तो है ही 

// दिनेश एल० जैहिंद 




८४ लाख योनियों में धरती पर हज़ारों प्रजातियाँ हैं। मानव एक ऐसी प्रजाति है जिसके बारे में यह माना जाता है कि यह सबसे विकसित, उन्नत्त व प्रबुद्ध प्रजाति है। साथ ही यह प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है। फिर भी इनमें कितने ऐसे हैं, जो प्रकृति को तो मानते हैं, किन्तु ईश्वर को नहीं मानते हैं।

पाश्तात्य मान्यता के मुताबिक प्रकृति ही प्रधान है और ईश्वर नगण्य है, वे ईश्वर को नहीं मानते हैं। उनके मुताबिक प्रकृति ही ईश्वर है। देखा जाय तो प्रकृति और ईश्वर दो भिन्न-भिन्न अस्तित्व हैं। जो दृष्टिगोचर है वही प्रकृति और उसकी रचना है और जो अगोचर है वही ईश्वर है।

अब जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक हैं और जो ईश्वर को मानते हैं, वे आस्तिक हैं। जो आस्तिक हैं, उन्हें तो ईश्वर की सत्ता पर भरोसा और विश्वास है। जिसके कारण वे उसकी आराधना, स्तुति, प्रार्थना व तपस्या करते है और वे कल्याण माँगते हैं, अर्दास करते हैं तथा वरदान भी माँगते हैं | परन्तु जो नास्तिक हैं वे ईश्वर पर भरोसा या विश्वास नहीं करते हैं। लेकिन यहाँ मैं बता दूँ कि #ईश्वर है और उसकी ही यह सृष्टि रची हुई है और फिर उसकी ही हम सब संतान है या इसे यूँ कहूँ कि समस्त सजीव और निर्जीव उसकी ही संतान हैं। 
यह तर्क संगत भी है। मगर कैसे...? मैं यहाँ लिख रह हूँ---



धरती पर पाये जाने वाले सभी प्राणियों को एक सम्पूर्ण शरीर, आकार-प्रकार प्राप्त हैं। मनुष्य को भी सम्पूर्ण शरीर, आकार-प्रकार, अंग-प्रत्यंग प्राप्त हैं। जैसे-- आँख, नाक, कान, जिह्वा, मुँह, मस्तिष्क, कंठ, हाथ, पैर, पेट आदि-इत्यादि। यहाँ मैं इनमें से एक उदाहरण
लेता हूँ--- चक्षु अर्थात् आँख का।
देने वाले ने हमें यह तन दिया, मगर तन में उसने दृष्टि अर्थात् उसने दो आँखें बैठा दीं। आपने एकांत में बैठ कर कभी सोचा है कि आख़िरकार जिसने भी हमें(इन प्राणियों को) रचा है, उसने दृष्टि क्यों दी। इसका कारण यह है कि उसे पहले से यह विदित है कि जहाँ यह (जीव) होगा वहाँ देखने के लिए अनेक वस्तुएं ( ठोस, द्रव, गैस के रूप में) उसे मिलेंगी। अगर इसमें दृष्टि नहीं होगी तब यह कैसे इनको देख पायेगा या कैसे नेत्र-सुख ले पायेगा ?

एक और उदाहरण मैं लेता हूँ---
श्रवण अर्थात् कान का।
इस तन में उसने श्रवण शक्ति प्रदान की अर्थात् उसने दो कान हमें प्रदान किए। तो उसने ये कान हमें क्यों दिए...? इसका भी कारण यही है कि उसे पूर्वानुमान है कि जहाँ यह होगा वहाँ सुनने के लिए विभिन्न प्रकार  के स्वर होंगे!
अगर श्रवण शक्ति नहीं होती तो वे कहीं किसी को कभी सुन पाते क्या....?
इसी तरह संसार में जो कुछ भी उपलब्ध है उसका रसस्वादन करने के लिए उसने हमें विभिन्न माध्यम प्रदान किए है।
सबसे अधिक विचित्र व चमत्कारिक अंग हमें उसने प्रदान किया है वह है-- हृदय..... जो ताउम्र अर्थात् आजीवन धड़कता रहता है। 
यह हमें जीवन का एहसास देते रहता है। दूसरा जो उसने विचित्र अंग प्रदान किया है वह है -- कंठ।
वाह....! अवर्णनीय-अतुलनीय-अनुपम (जितना भी कहा जाय नगण्य होगा)।
ईश्वर अपने आप में एक चमत्कार है, चमत्कार है ही....ये धरती-चाँद-सितारे-सूर्य, ये ब्रह्माण्ड..चमत्कार नहीं तो क्या है ! और ये अदना-सा आदमी इस चमत्कार को नहीं मानता ....नास्तिक लोग ऐसे चमत्कार को नहीं मानते हैं तो घोर अज्ञानता और अंधकार में हैं।

हमारे वेद-पुराणों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है वह हमारी सोच (दर्शन) की प्रकाष्ठा है।

ईश्वर...! 
ईश्वर को जिसने भी देखा है या महसूस किया है उसकी कल्पना मात्र से हमारी
आँखे चौंधिया जाती हैं, तन सिहर जाता है, हृदय कूदने लगता है तथा शक्ति क्षीण होने लगती है। वह तो महाशक्तिमान, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र, सर्वव्यापि है।मैं अपने ईश्वर रूपी माँ/पिता पर अपना सब कुछ समर्पित करता हूँ।

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                                       ़

दिनेश एल० "जैहिंद"
01. 08. 2016

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