Ad Code

एक लघु कथा: माँ की ममता

एक लघुकथा पेश है :

माँ की ममता



ननद और भौजाई में खूब छन रहा था। मात्र सप्ताह भर हुआ होगा ममता को अपने पिहर आए हुए। वह अपने दो बच्चों के साथ आजकल पिहर आई हुई थी। उसकी भौजाई आशा के दो बेटियाँ और इसके एक बेटी और एक बेटा खूब घुलमिल कर एक दूसरे के साथ खेल रहे थे।

समय अच्छा ही कट रहा था कि उसकी भौजाई आशा के मायके से उसकी माँ का फोन आया कि आकर सप्ताह भर के लिए घूम जाए।

कई महिनों से उसकी माँ का फोन आ रहा था। आशा हमेशा टाल जाया करती थी। इस बार उसने सोचा - चलो अच्छा मौका हाथ लगा हुआ है। ननद आई हुई है, यहाँ का कोई फिकर नहीं है। मैं भी मायके से घूम आती हूँ बच्चों को लेकर।

रविवार का दिन था। सुबह से आशा तैयारी में लगी हुई थी। सब कुछ तैयार हो जाने के बाद सोचा कुछ पकवान बना लूँ । सो उसने अपनी बड़ी बेटी को अपनी सासु माँ के पास भेजा कि कुछ रुपये मिल जाए तो उन रुपयों से राशन 
मँगवाकर थोड़ा पकवान बना ले।

थोड़ी देर बाद उसने साफ सुना --- " मेरे पास पैसे-वैसे नहीं हैं तुम्हारे पकवान के लिए। ऐसे नहीं जा सकती क्या ..! हर बार पकवान बना कर ले तो जाती ही है।"
आशा सुनकर भी अनसुनी कर गई। उसकी बेटी अपना-सा मुँह बनाकर माँ के पास लौट आई।

फिर तो आशा के पास जो थोड़े पैसे थे, उसे ही समेट कर राह खर्च के लिए वह रख ली और निकल पड़ी अपने दोनों बेटियों के साथ मायके के लिए।
चार-पाँच दिन ही बीते होंगे कि शनिवार का मुहूर्त निकलवा लिया ममता ने अपनी ससुराल जाने के लिए। पहले ही उसने अपनी माँ से कह रखा था।
फिर क्या.... !

शनिवार आया। ममता अपने दोनों बच्चों को तैयार कर खुद भी तैयार हो गई।
माँ ने किसी के हाथों बाज़ार से ढेर सारे राशन मँगवा लिये थे। ममता और माँ ने मिलकर तरह-तरह के पकवान बनाए।
माँ बहुत खुश थी और खुशी-खुशी माँ ने ममता और उसके दोनों बच्चों को विदा किया।

ममता तो चल पड़ी ससुराल के लिए लेकिन रास्ते भर वह सोचती रही कि मेरी भौजाई आशा पर उस दिन क्या बीता होगा जब माँ ने कहा था कि,  "मेरे पास पैसे-वैसे नहीं हैं .........!"

                  ####

दिनेश एल० "जैहिंद"
06.12.2015



Post a Comment

0 Comments

Close Menu