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फिल्म नगरी और भारतीय समाज

 

फिल्म नगरी और भारतीय समाज 
//dinesh l. jaihind


जैसे साहित्य समाज का आइना होता है वैसे ही फिल्म समाज का दर्पण होती है।

लेकिन विगत कई सालों से भारतीय फिल्में इस बात को झुठला रही हैं। और अबकी फिल्में तो भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज व परिवार के उत्थान में सहायक होने के बजाय इनकी धज्जियाँ उड़ा रही हैं।बने बनाए सामाजिक व पारिवारिक तौर तरीके, रीति-रिवाज, रहन-सहन व रिश्तों पर बनावटी व पाश्चात्य संस्कृति की विकृत मानसिकता वाली चकाचौंध से भरी मैली चादर डाल रही हैं। और तो और..ये फिल्में भारतीय समाज व परिवार की एक अलग कुरूप परिभाषा गढ़ रही हैं।
आजकल की फिल्मों की ये दशा है कि हर फिल्मों की कहानी इन्हीं बातों के इर्द गिर्द चक्कर लगाती हुई देखी जा सकती है --

दो भाई आपस में किस वजह से कैसे लड़ेंगे ? बाप के मरने से पहले ही जमीन-जायदाद व घर का बँटवारा कैसे होगा ? पत्नी पति से किस बात को लेकर लड़ेगी ? पति कब बीवी से झगड़ेगा ? बहू सास से कैसे हाथ नचा-नचाकर झगड़ेगी ? सास-बहू का झगड़ा कैसे बिना वजह शुरू हो जाता है ? ननद -भौजाई में क्यूँ नहीं बनती है ? दोनों के बीच किस तरह से ईर्ष्या बरकरार 
रहेगी ?



जमीन के लिए दो गाँव कैसे लड़ते हैं ? नेता कैसे दो दलों को लड़ाकर अपना वोट बैंक मजबूत करेगा ? प्रधान की लड़ाई में कैसे दारू व पैसा बहाया जाएगा ? कैसे वोटर दारू और मेहरारु के चक्कर में अपना मुखिया गलत चुन लेते हैं ? कैसे देश से गद्दारी करते हैं ? किस तरह से आतंकी बनते हैं ? कैसे मानव बम तैयार करते हैं ? कैसे डकैत बना जाता है ! कैसे मंदिर, मस्जिद, चर्च, संसद व भवन को मिनटों में बम बलास्ट में उड़ा देते हैं ! कैसे गला रेता जाता है ? कैसे मर्डर किया जाता है ? कैसे पिस्टल से खून किया जाता है ? कैसे प्लेन हाइजैक किया जाता है ? कैसे मिनटों में करोड़ों का माल उड़ा लिया जाता है ?

कैसे लव जिहाद छेड़ा जाता है ? कैसे किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाते हैं ? कैसे एक विशेष धर्मावलम्बियों के ईष्ट देवता का मजाक उड़ाते हैं ? कैसे पत्नी की पीठ पीछे गैर औरत से गुलछर्रे उड़ाते हैं ? कैसे पत्नी के रहते हुए दूसरी लड़की से प्यार हो जाता है ? कैसे एक लड़की वैश्या बनने पर उतर आती है ? कैसे एक वैश्या किसी की बसी-बसाई घर-गृहस्थी उजाड़ देती है ?


लेकिन.....

साठ से नब्बे के दशक की फिल्में हुआ करती थीं। देखते जी नहीं भरता था। पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक या देश- भक्ति, रोमांटिक अथवा ड्रामेटिक फिल्में हों । सबमें एक संदेश छुपा रहता था । देश, समाज, परिवार व जनता के लिए एक शिक्षा हुआ करती थी। लोग फिल्में देखकर दिमागी तौर से सुदृढ़ होते थे। उनके विचारों में परिष्कार आता था। वे कुमार्ग से सुमार्ग का रास्ता चुनते थे। अपनी जिंदगी को सँवारने के लिए सुपथ की ओर अग्रसर होते थे। चोरी, बेईमानी, झूठ को त्यागकर सत्य के मार्ग पड़ चल पड़ते थे। कुटिल महिला कुटिलता त्याग देती थी, धूर्त पुरूष धूर्तता त्याग देता था। वे सभी फिल्में देखकर सच्चाई की राह पर चलने के लिए मजबूर हो जाते थे। वे ईमान-धर्म की बातें करने लगते थे। भटकी हुई बेटी, नालायक बेटा, पथभ्रष्ट भाई, चरित्रहीन पति व कुलटा पत्नी तक अपनी जिंदगी को एक मोड़ देकर अपने आपको बर्बाद होने से बचा लेते थे।
वे होती थीं फिल्में। जिनकी कहानी, संवाद,  पटकथा व दृश्य में दम होता था। जिनकी कहानी उचित प्रसंग के साथ आगे बढ़ती थी । पात्र उत्तम चरित्र को निभाते हुए अंत तक दर्शक को कुर्सी से बाँधे रहते थे और कुर्सी छोड़कर जाते समय एक प्रेरक सीख उनके दिमाग में डालकर उन्हें घर भेजते थे।
यहाँ तक कि हास्य व व्यंग्य पर आधारित फिल्में भी दर्शकों का शुद्ध मनोरंजन करती थीं। उन्हें हँसाती थीं। उन्हें मानसिक विकार व अवसाद से निकाल कर खुशहाली की जिंदगी जीने को विवश करती थीं। मारधाड़, एक्शन, रोमांस व रहस्य की फिल्में भी उनके दिल पर पड़े बोझ को हल्का ही करती थीं। सत्य का असत्य पर विजय, सही का गलत पर जीत व नायक का खलनायक पर विजय उस जमाने की फिल्मों का ट्रेड हुआ करता था। वे फिल्में सच्चे अर्थों में फिल्में हुआ करती थीं। और वैसी फिल्में ही समाज के दर्पण थीं और हुआ करती हैं।
आप सोच रहे होंगे कि मैं ये सारी बातें आपको क्यों कह रहा हूँ। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल की फिल्मों से लाभ कम और हानि अधिक है या यूँ कहूँ कि लाभ तो नहीं के बराबर है।


यदि हम आजकल की फिल्में देखने सिनेमा घर जाते हैं तो मनोरंजन के लिहाज से फिल्में देखना ठीक है। लेकिन कुछ अच्छा सीखने के लिहाज से फिल्में देखने जाते हैं तो ये हमारी भूल है, हम मुगालते में हैं। आजकल की फिल्में हमें वही परोसती हैं जो हम ऊपर उल्लेख कर आए हैं। ऐसे में फिल्में बनाकर हम समाज को क्या परोस रहे हैं? समाज को कौन-सी दिशा दे रहे हैं? समाज को किस ओर लिए जा रहे हैं? हम अच्छी तरह समझ रहे हैं। आज समाज, परिवार व देश की हालत अव्यवस्थित और बिगड़ी पड़ी है तो इसकी सबसे बड़ी जिम्मे- दार फिल्में ही हैं।

फिल्में और फिल्मों की कहानी जो लिख रहे हैं, फिल्मों को जो डायरेक्ट कर रहे हैं और उन्हीं फिल्मों को जो बना रहे हैं। सबके सब एक अलग ही विचारधारा को लेकर जी रहे हैं। उनको देश, समाज, परिवार, जनता, देशप्रेम व राष्ट्रधर्म से कोई मतलब नहीं है। वे सिर्फ अपनी शोहरत व पैसे के भूखे हैं। वे अपनी एक अलग ही दुनिया बना बैठे हैं। उनकी असली दुनिया है मुंबई, मुंबइया फिल्में और मुंबई नगरी ! बस, वे अपने इर्द गिर्द एक बड़ा तालाब खोद लिये हैं और मोटा मेढ़क बनकर पानी में उछल-कूद मचा रहे हैं । कभी सिर उठा रहे हैं तो कभी पेट फुला रहे हैं और अपनी शान बघार रहे हैं।


उनकी चाल-चलन, बोल-वचन, रहन-सहन, बात-व्यवहार, कार्य प्रणाली व नाते-रिश्ते सब के सब अजीब हैं। उनकी कोई भी चीज भारतीय परिवेश से मेल नहीं खाती है। कभी सग्गी बेटी से शादी करने को सोचते हैं तो कभी दो-दो शादियाँ करते हैं तो कभी एक को छोड़कर दूसरी से शादी करते हैं तो कभी घर में पत्नी के रहते किसी से प्यार हो जाता है तो कभी बुढ़ापे में भी जवानी जाग जाती है तो कभी विजातीय लड़की या लड़का पसंद आ जाता है तो कभी चचेरी बहन से इश्क हो जाता है।
वे अपनी कथित छवि से देश के युवाओं व युवतियों की छवि धूमिल कर रहे हैं। वे अपनी कुकृत्य से न जाने कितनों को बर्बाद कर रहे हैं। वे अपनी विषैली सोच से न जाने कितनों की जान ले रहे हैं। वे सारा पारिवारिक माहौल ही खराब करके रख डाले हैं। वे अपनी कथित पारिवारिक सोच व गंदगी को सारे देश में फैला रखे हैं।


और वे इतना ही नही करते हैं। वे अपनी इसी गंदी सोच व ओछी जिंदगी को स्टोरी लाइन बनाकर उन पर फिल्में बना रहे हैं। अपने आपको आइकन साबित करने में लगे रहते हैं। और हम ऐसे मूर्ख हैं कि उनकी उसी गंदी व बेतुकी फिल्मों को सिनेमा हॉल में जाकर अपने पैसे गंवा रहे हैं।

आइए बताता हूँ कि धीरे-धीरे ही सही मगर फिल्मों की बनावट में मूलचूल परिवर्तन कैसे आया?
नब्बे के दशक से मुंबई पर कुछ आपराधिक किस्म के लोगों का दबदबा बढ़ने लगा था और फिल्मी लोग धीरे-धीरे उनके संपर्क में आने लगे थे। इक्कीसवीं सदी के आते-आते   मुंबई व फिल्मी नगरी पर माफिया डॉन का घुसपैठ शुरू हो गया। पैसे के अभाव में फिल्में बनानी मुश्किल हो गईं। नतीजतन निर्माता जब पैसों के अभाव से जुझने लगे तब वे माफिया गैंग से उनके गुर्गे के माध्य से  जुड़ने लगे। फिर क्या? माफिया डॉन को काले धन को सफेद करने का मौका मिल गया और वे लगे हाथ काले धन को सफेद करने लगे। बेहिसाब पैसे उनकी तरफ से फिल्मों पर लगने लगे और देखते-देखते उनका दबदबा और कुप्रभाव फिल्मी नगरी पर बढ़ने लगा। नायक-नायिका मुँह माँगी मेहनताना माँगने लगे ! फिर फिल्मों का बजट बढ़ता ही चला गया। अब माफिया डॉन निर्माताओं की जरूरत हो गए। फिर शुरू हुआ हुआ उनकी फिल्मों और फिल्मी कहानी में दखल अंदाजी का दौर। उनकी ही सोच और कुकृत्य को चित्रांकन करना आम बात हो गई। नतीजा दो हजार बीस आते- आते सब कुछ देश व दुनिया के सामने पहुँच गया।
उन्नीस सौ तिरानब्बे में दिव्या भारती की अकस्मातिक मौत, उन्नीस सौ सनतानब्बे में गुलशन कुमार की हत्या, दो हजार तेरह में  जिया खान की रहस्यमयी आत्महत्या, दो हजार बीस में सुशांत की मैनेजर दिशा सालियान की तथाकथित आत्महत्या फिर इसी साल सुशांत सिंह राजपूत की अनसुलझी आत्महत्या !! बॉलीवुड में हादसा, हत्या व आत्महत्या का सिलसिला लम्बे अर्से से चालू है। और अाज तक मुंबई पुलिस या सी०बी०आइ० इनके साथ न्याय नहीं कर पाई ! क्या कारण है कि इन सभी मौतों के रहस्यों से पर्दा नहीं उठ सका? बहुत बड़ा कारण है- न्यू कमर, इन साइडर आउट साइडर, स्टार किड्स, जातिवाद, भाईवाद व पुत्र मोह। कोई भी कारण हो सकता है। और उन्हीं कारणों का शिकार सुशांत सिंह राजपूत हो गया। सुशांत का केस सबसे ज्यादा पॉपुलर हुआ। इस केस को खंगालने पर कई एंगल निकल कर सामने आए। नतीजतन इस केस में कई केंद्रीय संस्थान केस के तह तक पहुँचने हेतु जुड़ गए ! मसलन ई०डी०, सी०बी०आइ० व एन०सी०बी०। यह बहुत जरूरी था और है। कारण फिल्मी लोग बॉलीवुड को रंडी खाना, मौत का अड्डा व चारित्रिक हनन का तबेला और सांस्कृतिक पतन का चौपाल बनाकर रखा है। इसका समाधान होना बहुत जरूरी है। बॉलीवुड में पनपे मानसिक विकार और गंदी सोच का साफ होना बहुत जरूरी है। 



फिलहाल केंद्र सरकार ने पहल करके बहुत अच्छा कार्य किया है। अब जरूरत है कि पारदर्शिता के साथ इस केस का सही जाँच- पड़ताल करके इस तालाब के सारे मोटे मेढ़कों, कीड़ों व कचरों को साफ करके एक स्वच्छ बॉलीवुड भारतीयों के सामने पेश करे।


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लेखक:
दिनेश एल० "जैहिंद"

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